कभी कभी इंसान की स्थिति पिंजरे मे कैद उस पंछी जैसी होती जो पिंजरे से रिहा होने कि सोचना भी नहीं चाहता, मोह वश उसको पिंजरा ही अच्छा लगने लगता वो कैद को सहृष स्वीकार कर वाह्य दुनिया से खुद को अलग कर उस छोटे से पिंजरे को अपनी पूरी दुनिया मान लेता है, और बंधन मे बंधे होते भी जीवन् को आज़ाद होके जीता, पर मोह , माया , और भावनाओ से बना ये जाल् कभी ना कभी तो टूटता पर तब तक पंछी अपनी उड़ान भूल चुका होता अब उसे अपनी कैद से ज्यादा आजादी से डर लगने लगता , वो स्व छ्न्द आसमानो मे उड़ने वालोंं के साथ जीवन् जीने योग्य नहीं रहता ,अकेले उस पिंजरे मे कैद उसके सारे अपने उसको भूल चुके होते,पिंजरा टूटने पे रिहा होने पर उसके जीवन् का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता , जैसे इंसान मोह से जुड़े होने कि वजह से अपने आप को अपनो के बीच सुरक्षित और मुक्त मानता जीवन् जीने कि उसकी लालसा मृत्यु जैसे सत्य को भी स्वीकार नहीं करना चाहती , और मृत्यु के बाद भी वो भटकाव लेके अपनो कि तलाश करता वो अपने जो माटी के पुतले को जला चुके होते, और दो चार दिन उसको भुलाने कि प्रकिया मे आगे बढ़ चुके होते , समय रुकता नहीं सब अपने जीवन् कि कैद मे जीवन् जीने लगते ,माया रूपी सोने के पिंजरे मे खुद को मुक्त मान लेते ...................
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