लगी हैं ठहरी ठहरी सी बड़ी हैं गहरी गहरी सी
समझ में ही नही आती हैं ये क्यों हैं एक पहेली सी
कभी करती हैं अठखेली तो लगती हैं सहेली सी
जो रूठे तो लगती हैं बड़ी ही अलबेली सी
यादो के आशियाने से कभी किसी बहाने से
यह फिर से झेड़ देती हैं कुछ बिखरे तार पुराने से
कभी सपने गिराती हैं ये वक़्त के दामन पे
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