अमीर और अमीर , और अमीर होता ही गया |
गरीब अपनी गरीबी का बोझ ढोता ही गया |
बढता रहा यह बोझ ज्यों ज्यों ज़िन्दगी बढ़ी |
बढती रही कशमकश ज़माने के साथ आने की|
बदलते वक़्त से कदमो के तालमेल बैठाने की |
पर परवाह भी थी उसे अपने आप से नज़र मिलाने की |
रिश्ते , नाते ,शर्म और ईमान बिक गये |
अमीर बनने के खातिर कितने इंसान बिक गये |
जो बिक न सका दुनिया के इस बाज़ार में,
ऐसे इंसान के अपने ही घर , मकान बिक गये