आप जब लोगो पे बोझ बनने लगते है ,
आपकी मजूदगी से वो अखरने लगते है,
शायद रिश्ते जरूरत से ज्यादा कुछ भी नही,
जरूरते ख़तम होने पे रिश्ते भी समिटने लगते है,
आप जब लोगो पे बोझ बनने लगते है ,
आपकी मजूदगी से वो अखरने लगते है,
शायद रिश्ते जरूरत से ज्यादा कुछ भी नही,
जरूरते ख़तम होने पे रिश्ते भी समिटने लगते है,
संदेह और प्रेम दोनो एक साथ नही रह सकते,
पर सच और झूठ रह सकते है ,
झूठ को सच का नकाब पहना के दूसरो को बेवकूफ बनाना कौनसा मुश्किल काम है ,
ये आसान भी इसीलिए है क्यूंकि आप यकीन करके खुद ही खुद को बेवकूफ बना रहे होते है ,
कांच के चमचमाते से टुकड़े हीरे नही बन सकते,
ठीक वैसे ही जैसे दूसरो के लिए बनाई हुई बातें खुद पे लागू नहीं कर सकते,
बड़ी ही अच्छी लगती है कुछ बातें पर सिर्फ बातों में ही क्योंकि वो होती भी सिर्फ बातें ही है,
जब वही बातें उसी इंसान पे परखने लगो तो चुभने लगती है,
सच्चाई तब तक सच्ची लगती है जब तक दूसरी तरफ से छिपी रहे और एकतरफा हो,
खुद पे बात आती है तो सच्चाई के मायने ही बदल जाते है...........
प्रेम में समर्पण का महत्व तो सभी बताते है ,
पर क्या खुद को उस समर्पण में ढाल पाते है,
जितना आप लोगो के लिए खुद को मिटाते जाओगे,
दूसरा आपको उतना ही आजमाता जाएगा,
आप मिट भी जाओगे तो मजाक ही बनाए जाओगे,
वक्त के साथ लोग बदल जायेंगे और आप सिर्फ एक तमाशा बन के रह जाएंगे,
जिंदगी के सिरे ढूंढिए वक्त तो फिसल रहा है,
धीरे धीरे ही सही जिंदगी जा रही है मौत के करीब,
समेटिए खुद को दूसरों का आसरा छोड़िए,
सच सिर्फ इतना ही है हर एक रिश्ता किसी वजह और जरूरत से ही जुड़ा होता है,
मौत आने तक सब अपने ही लगते है मौत के बाद इंसान अकेले ही लकड़ी की चिता पे पड़ा होता है,
राख बन जाने तक रुकने वाले भी सोचते है समय खराब हो रहा है,
वो अंतिम संस्कार तेहरवी तक चलने वाले क्रियाकर्म को भी ढोंग और ढकोसला बताता है,
अरे जाने वाला गया अब भला कौन किसको याद आता है,
जिंदा रहते ही कहा याद करते है लोग हाल चाल पूछ के कोई एक आद ही औपचारिकता निभाता है,
रिश्ते और रिश्ते , रिश्तों के बाजार में रिश्तो की लेन देन में, रिश्तों के बोझ को निभाने वाला ही निभा पाता है ,
खैर छोड़िए जिंदगी है तब तक जिए खुद से खुद तक कोई याद करे तो ठीक कोई साथ चले तो ठीक ना भी चले तो भी ठीक ,कोई अपना माने तो ठीक ना भी माने तो भी ठीक ,दोस्त माने तो ठीक दुश्मन माने तो भी ठीक ,राम राम कहे और मस्त रहे दुनिया में कोई किसी का है ही नही इस यथार्थ के साथ जीवन का सफर तय कर मौत के अंतिम पडाव तक ...............................................................
सब के पास चंद अपने है ,
मेरे पास भरम है,
हाथो की लकीरों में खोट है
या मैं ही गलत हूं रिश्ते निभाने में,
लोग सिर्फ आजमाते है मुझे अपनाते नही है,
लोगो को अपना समझने से वो अपने बन जाते नही है,..............
सबको अपना मान के जो हम चल रहे है,
हमेशा से गलत हम ही है जो अपनो को अपना समझ रहे है,
कोई क्यू समझे हमे सही हम तो उनमें से है जो सबको अखर रहे है,
हाथो में रेत ही रेत है हम और भर रहे है........................
जब अपने अपने नहीं होते तो परायों से उम्मीद कैसी,
इस दिखावा और झूठ कि दुनिया में सच्चाई की उम्मीद कैसी,
कभी कभी इंसान की स्थिति पिंजरे मे कैद उस पंछी जैसी होती जो पिंजरे से रिहा होने कि सोचना भी नहीं चाहता, मोह वश उसको पिंजरा ही अच्छा लगने लगता वो कैद को सहृष स्वीकार कर वाह्य दुनिया से खुद को अलग कर उस छोटे से पिंजरे को अपनी पूरी दुनिया मान लेता है, और बंधन मे बंधे होते भी जीवन् को आज़ाद होके जीता, पर मोह , माया , और भावनाओ से बना ये जाल् कभी ना कभी तो टूटता पर तब तक पंछी अपनी उड़ान भूल चुका होता अब उसे अपनी कैद से ज्यादा आजादी से डर लगने लगता , वो स्व छ्न्द आसमानो मे उड़ने वालोंं के साथ जीवन् जीने योग्य नहीं रहता ,अकेले उस पिंजरे मे कैद उसके सारे अपने उसको भूल चुके होते,पिंजरा टूटने पे रिहा होने पर उसके जीवन् का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता , जैसे इंसान मोह से जुड़े होने कि वजह से अपने आप को अपनो के बीच सुरक्षित और मुक्त मानता जीवन् जीने कि उसकी लालसा मृत्यु जैसे सत्य को भी स्वीकार नहीं करना चाहती , और मृत्यु के बाद भी वो भटकाव लेके अपनो कि तलाश करता वो अपने जो माटी के पुतले को जला चुके होते, और दो चार दिन उसको भुलाने कि प्रकिया मे आगे बढ़ चुके होते , समय रुकता नहीं सब अपने जीवन् कि कैद मे जीवन् जीने लगते ,माया रूपी सोने के पिंजरे मे खुद को मुक्त मान लेते ...................
सपने तो सपने होते कब सच से नजर मिलाते है,
सपनो को जी लेने वाले भ्रम का जाल बनाते है,
खुद से खुद को ही दूर रखके हवा हवा ( भावनाओं) मे रह जाते है,
सच तो ये सच के सामने सपने दम तोड़ ही जाते है ................
जब दरार सी आती है फर्क पड़ ही जाता है ,
जुडाव से बिखराव तक का सफर चल ही जाता है,
दर्रे दर्रे उतर जाती है सब पपड़ीयां,
खो जाती है रंगत बदल जाती है सारी हस्तियां,
रंग उतरता ही है इंसान हो या तितलियां,,लल
,
रेल सी लम्बी जिंदगी और बोगी जैसे जुड़े हर रिश्ते और यात्री जैसे जुड़े हर अपने ....
रेल सी जिंदगी है ,
है बड़ा लम्बा सफर,
जितने डिब्बे है जुड़े सबका अपना नंबर,
चल रहे है एक पटरी रास्ता है बस सफर,
कौन आए कौन जाए पटरियों को क्या खबर,
उच्च नीच जाति जैसे जुड़े एसी से जनरल ,
अपना अपना श्रेणीक्रम है, अपना अपना मूल्य है,
यूँ तो है एक ही डगर है ,अन्तर
समाज के भेदभाव जैसा रेल पे भी है असर,
सब जुड़े से दिख रहे है है सभी अलग थलग,
कि जिंदगी एक रेल सी है, है बड़ा लम्बा सफर ..
बोगी जुडती कपलिंग से बँधी रहती वेक्यूम से,
रिश्ते जुड़ते भावनाओं से बंधे रहते स्नेह से,
टूट जाते स्वार्थ से, छल से, चाल से, कपट से,दम्भ से
उतर जाते यात्री से अपने अपने मतलब से अपने अपने स्टेशन,
रास्ते है पडाव है बांधाये है सुख दुःख सी,
चलती जाती रेल का बस चलते जाना अनवरत,
कभी जीवन के अंत तक भी साथ देती पटरियां,
या कभी यूँही कहीं बोझिल हो टूट जाती सी है,
कौन आए कौन जाए पटरियों को क्या खबर,
जिंदगी एक रेल सी है ,है बड़ा लम्बा सफर ..
किसकी मंजिल है कहां तक कितना लम्बा है सफर .........................
कभी कभी खुद को खुद ही दफनाना पड़ता है ,
अपनी जिंदगी को जीते जी मौत जैसा बनाना पड़ता है,
ख़ुशी नहीं मिलती किसी को भी ऐसा करके
पर खुद से हार कर खुद को दिखाना पड़ता है,
दो कदम आगे ही तो बढ़े थे ,
हम को बदल के लोग बदलने लगे ,
हंसी कि उम्मीद तो हमको कभी थी ही नहीं,
लोग आँखो मे आँसू देख के ही हंसने लगे,
दूसरों को खुश रखने को हमने खुद से ही समझौते किये,
लोग हमें जख्म दे के हमसे मुकरने लगे,
खेल नहीं हूँ मैं जो कल अपने बनने का दावा किये,
आज वो दाँव खेलने लगे ..................
ये तो सच है कि भगवान झटके देते है कभी कभी अनगिनत,
कभी सपने शुरू होने के पहले ही खत्म हो जाते है,
कभी मुस्कुराते हुए चेहरे पल भर मे आंसुओं कि बाढ़ मे बदल जाते है,
कभी कभी अपने अपनो से इतनी दूर निकल जाते है जहां ना आवाज जाती है ,ना ख़ामोशी
ये जनम वो जनम ,अच्छे कर्म बुरे कर्म ,
हाथों कि लकीरें, माथे कि लकीरें,
मेरी तक़दीर ,तेरी तकदीर,
किसने देखा है आने वाला कल ,
पर क्या ये वक़्त जो थम गया बरसो से सिर्फ अपने लिए ,
ऐसा कौन सा जनम था वो जहां के कर्ज यहां तक चलें आए,
इस जनम का तो याद नहीं ऐसा कौन सा कर्म था वो जिसकी सजा आज तक पूरी ना हुई ,
सोच और समझ से परे हम ने किया क्या जो हमसे रास्ते ही छूट गए,
अपने जो नाम के ही अपने थे उनके भी गर्दिश मे हाथ ही छूट गए,
लोग समझते है हम ज़िंदा है आज तक कुछ मौत ऐसी भी होती है जिनमें साँसे नहीं जाती ,
ये वो मौत है जिसमें शरीर ख़ाक नहीं होता चिता पे नहीं सोता ,
मरने वाले को तो फिर भी सुकून मिल गया होता है ये तो वो मौत है जहां इंसान जिंदा ही मर गया होता है,
रिश्तों के तमाशे मे भावनांए दफ्न हो गई,
ऊधेर बुन और कसमकश मे जीवन अपना अस्तित्व खो गई
जिंदगी तु मुझे हर बारी क्यूँ आजमाने चली आती है,
जब भी जीने की कोशिश करती हूँ तू सताने चली आती है,
छोड़ दे ना अकेला मुझे क्यूँ हर बारी एक नया ख्वाब दिखाने चली आती है,
दुनिया के छलावे से जब भी खुद को समेट के खड़ा करती हूँ तू मुझे फिर उलझाने चली आती है,
साँसे है चल रही है वक़्त है गुजर रहा है क्यूँ हर बारी तू अपनेपन का स्वांग रचाने चली आती है,
चुपचाप ही तो हूँ किसी का क्या लेती क्यूँ हर बारी तू मुझे भूला हुआ सब याद कराने चली आती है,
अब मुस्कुराने की हिम्मत भी ना होती मेरी क्यूँ की तू हर बारी आंसुओं कि चादर मुझे तोहफे मे देने चली आती है ........................................................
कुछ बेचेनी है जो समझ नहीं आती ,
कश्मकश सी हर वक़्त छाई है,
मुझे पता नहीं मेरा मुक्कदर,
किस मोड़ पे खड़े है हम ,
आंखों मे सिर्फ परछाई है,
कुछ सहमे कुछ डरे ,
टेढ़ी मेढी हाथों की लकीरो मे उलझें पड़े,
पता नहीं मेरी किस्मत मुझे कहां छोड़ आई है,